पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/९

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काग़ज़ कलम लेकर सवेरे से रात तक जो जो काम किए हैं, सब लिख जाइये और पढ़ जाइए।"

मेरे सहपाठी पण्डित लक्ष्मीनारायण चौबे, बा० भगवानदास हालना, बा० भगवानदास मास्टर (इन्होंने उर्दू बेग़म नाम की एक बड़ी ही विनोदपूर्ण पुस्तक लिखी थी, जिसमें उर्दू की उत्पत्ति, प्रचार आदि का वृत्तान्त एक कहानी के ढंग पर दिया गया था) इत्यादि कई आदमी गर्मी के दिनों में छत पर बैठे चौधरी साहब से बातचीत कर रहे थे। चौधरी साहब के पास ही एक लैम्प जल रहा था। लैम्प की बत्ती एक बार भभकने लगी। चौधरी साहब नौकरों को आवाज़ देने लगे। मैंने चाहा कि बढ़ कर बत्ती नीचे गिरा दूं; पर पण्डित लक्ष्मीनारायण ने तमाशा देखने के लिए धीरे से मुझे रोक लिया। चौधरी साहब कहते जा रहे हैं—“अरे जब फूट जाई तबै चलत जाबह"। अन्त में चिमनी ग्लोब के सहित चकनाचूर हो गई; पर चौधरी साहब का हाथ लैम्प की तरफ़ आगे न बढ़ा।

उपाध्याय जी नागरी को भाषा का नाम मानते थे और बराबर नागरी भाषा लिखा करते थे। उनका कहना था कि नागर अपभ्रंश से, जो शिष्ट लोगों की भाषा विकसित हुई वही नागरी कहलाई। इसी प्रकार वे मिर्जापूर न लिखकर मीरजापूर लिखा करते थे जिसका अर्थ वे करते थे लक्ष्मीपुर। मीर=समुद्र+जापुत्री+पुर।

हिन्दी साहित्य के आधुनिक अभ्युत्थान का मुख्य लक्षण गद्य का विकास था। भारतेन्दु-काल में हिन्दी काव्यधारा नए नए विषयों की ओर भी मोड़ी गई पर उसकी भाषा पूर्ववत् व्रज ही रही; अभिव्यंजना की शैली में भी कुछ विशेष परिवर्तन लक्षित न हुआ। एक ओर तो शृंगार और वीर रस की रचनाएँ पुरानी पद्धति पर कवित्त सवैयों में चलती रहीं दूसरी ओर देशभक्ति, देशगौरव, देश की दीन दशा, समाजसुधार तथा और अनेक सामान्य विषयों पर कविताएँ प्रकाशित होती थीं। इन दूसरे ढंग की कविताओं के लिए रोला छन्द उपयुक्त समझा गया था।

भारतेन्दु-युग प्राचीन और नवीन का सन्धिकाल था। नवीन भावनाओं को लिए हुए भी उस काल के कवि देश की परम्परागत चिरसंचित भावनाओं और उमंगों से भरे थे। भारतीय जीवन के विविध स्वरूपों की मार्मिकता उनके मन में बनी थी। उस जीवन के प्रफुल्ल स्थल उनके हृदय में उमंग उठाते थे। पाश्चात्य जीवन और पाश्चात्य साहित्य की ओर उस समय इतनी टकटकी नहीं लगी थी कि अपने परम्परागत स्वरूप पर से दृष्टि एकबारगी हटी रहे। होली, दीवाली, विजयादशमी, रामलीला, सावन के झूले आदि के अवसरों पर उमंग की जो लहरें देश भर में उठती थीं उनमें उनके हृदय की उमंगें भी योग देती थीं। उनका हृदय जनता के हृदय से विच्छिन्न न था। चौधरी साहब की रचनाओं में यह बात स्पष्ट देखने