पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/११

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छाई जिन पर कुटिल कटीली वेलि अनेकन।
गोलह गोली भेदि न जाहि जाहि बाहर सन॥

दूसरे स्थान पर कवि ‘मकतबखाने' का बड़ा ही चित्ताकर्षक वर्णन करता है:

"पढ़त रहे बचपन में हम जहँ निज भाइन सँग।
अजहुँ आय सुधि जाकी पुनि मन रँगत सोई रँग॥
रहे मोलबी साहेब जहँ के अतिसय सज्जन।
बूढ़े सत्तर बत्सर के पै तऊ पुष्ट तन॥

इसी प्रकार 'अलौकिक लीला' काव्य में भक्ति रस में लीन हो कर कवि ने कृष्णचरित का वर्णन बड़े मनोहर ब्योरों के साथ किया है।

चौधरी साहब स्थान-स्थान पर अनुप्रास और वर्णमैत्री गद्य तक में चाहते थे। एक बार आनन्द-कादम्बिनी के लिए मैंने भारत वसन्त नाम का एक पद्यबद्ध दृश्य काव्य लिखा, उसमें भारत के प्रति वसन्त का यह वाक्य उपालम्भ के रूप में था:

बह दिन नहिं बीते सामने सोइ आयो।
गरजि गजनबी ते गर्व सारो गिरायो।

दूसरी पंक्ति उन्हें पसन्द तो बहुत आई पर उन्होंने उदासी के साथ कहा-"हिन्दू होकर आप से यह लिखा कैसे गया??"

वे कलम की कारीगरी के कायल थे। जिस काव्य में कोई कारीगरी न हो वह उन्हें फीका लगता था। एक दिन उन्होंने एक छोटी सी कविता अपने सामने बनाने को कहा; शायद देशदशा पर। मैं नीचे की यह पंक्ति लिख कर कुछ सोचने लगा।

'बिकल भारत, दीन आरत, स्वेद गारत गात।'

आपने कहा-"आपने पहले ही चरण में ज्यादा घना काम कर दिया।"

चौधरी साहब के जीवन काल में ही खड़ी बोली का व्यवहार कविता में बेधड़क होने लगा था और वह इनके सदृश अच्छे कवियों के हाथ में पड़कर खूब मॅज गई थी। भारतेन्दु के समय में कविता के केवल विषय कुछ बदले थे। अब भाषा भी बदली। अतः हमारे चौधरी साहब ने भी कई कविताएं खड़ी बोलीमें बहुत ही प्रांजल लिखी हैं।

यह पहले ही कहा जा चुका है कि हमारे कवि में रसिकता और चुहलबाज़ी -कूट कूट कर भरी थी। ऐसे रसिक जीव का संगीतप्रेमी होना आश्चर्य की बात नहीं। उन्होंने बहुत सी गाने की चीजें बनाईं जो उन्हीं के सामने मिर्जापुर में गाई जाने लगीं। चौधरी साहब कितने बड़े संगीत के आचार्य थे यह उनके गीतोंसे स्पष्ट रूप