पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

सहम्यो मन अक्रूर, ज्यों अहि सुनि धुनि तूमरी।
अति चिन्ता सों चूर, खै चित मैं चिन्तन लग्यो॥३३॥
सब अचरज मय बात, सुनत लखत इत आय मैं।
कह्यो कछू नहि जात, सकै न मन अनुमान करि॥३४॥
यह शिशु परम अयान, होन जोग अति स्वल्प वय।
सो बल बुद्धि निधान, दुसह तेजयुत है महत॥३५॥
जाके जन्म प्रभाय, भई स्वर्ग वृज भूमि यहु।
जा छबि मनहि लुभाय, रही मदन मूरति मनौ॥३६॥
धन्य २ बसुदेव धन्य देवकी देवि तू।
जान्यो जग नहि भेव, जन्यो अजन्मा जिन सुवन॥३७॥
धन्य भयो यदुवंश जाके जन्म प्रभाव सों।
कहा बापुरो कंस, ता बैरी बनि करि सके॥३८॥
अति विचित्र यह बात, जन्यो उतै पहुँच्यो इतै।
नन्द कहायो तात, महरि यशोदा त्यों जननि॥३९॥
तऊ धन्य ये लोग, लख्यो बाल लीला ललित।
पूरब पुन्य संयोग, गोद खिलायो चूमि मुख॥४०॥
यों सोचत अक्रूर, नन्दराय अनुचरन सन।
कह्यों निकट अरु दूर, वृज मंडल मैं जाहु तुम॥४१॥
सब मोपन समुझाय, कहौ नृपति आदेस यह।
पठयो सबन बुलाय, कंस राज मथुरा पुरी॥४२॥
धनुष यज्ञ को साज, उतै सजायो अति महत।
होन सम्मिलित काज, हम सब चलिहैं भोर उत॥४३॥
लै सब लोग सकार, पलौ विलम्ब न होय कछु।
यथा शक्ति अनुसार, सजहु उपायन नृपति हित॥४४॥
बसियत जाके राज, ताके गृह कारज पर्यो।
चाहे जितो अकाज, होय तऊ सब सँग चलौ॥४५॥
सुनि सेवक आदेस, चले हरखि चहुँ दिसि तुरत।
बोले तब गोपेश, चिन्तित चित अक्रूर सों॥४६॥