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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/९९

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पूछयो मृदु मुसुकाय, मन मोहन अक्रूर सन।
"कहहु चचा समुझाय, कुशल छेम सकुटुम्ब निज॥१९॥
परम अनुग्रह कीन, दीन दरस इत आइक।
अब जो वृत्त नवीन, होय कहहु सो करि कृपा"॥२०॥
चित चिन्ता सों चुर, संसय विसमय सो भर्यो।
कह्यो सकुचि अक्रूर, “अहै कुशल सानन्द सब॥२१॥
हे मेरे प्रिय प्रान, मधुपुर मैं नृप कंस जू।
सुन्दर सहित विधान, धनुष यज्ञ कीन्यों चहैं॥२२॥
मल्ल युद्ध तिहि संग, क्रीड़ा कौतुक आदि बहु।
उत्सव रंग, बिरंग, वहां होइहैं विबिध विधि॥२३॥
होन सम्मिलित काज, तुम कहुँ आमंत्रित कियो।
जा हित मैं इत आज, आयो प्रेरित नृपति सों॥२४॥
नन्द आदि गोपाल सबहिं बुलायो मान धन।
लखि २ होहु निहाल, उत की नव लीला ललित॥२५॥
तासों मिलि सब लोग, चलहु सकारे हरषि हिय।
मिल्यो अपूरब जोग, नृप दरसन आनन्द लहन॥२६॥
कह्यो हिये हरखाय, दामोदर अक्रूर सों।
“परम कृपा दरसाय, भोजराज निश्चय हमैं॥२७॥
उतै बुलायो टेरि, लखिबे हित उत्सव महत।
हरषित है, हैं हेरि, हम सब संग आपके॥२८॥
बहुत दिनन सों चाह, लखन मधुपुरी की रही।
राजधानि वृज नाह, सुनियत जो अतिसय रुचिर॥२९॥
करहिं आप विश्राम, थाके आये दूर सों।
प्रातहि आय प्रनाम, करि चलि हौं संग आप उत"॥३०॥
अतिसय विस्मित होय, कह्यो सहमि अक्रूर यह।
“खाहु पियहु सुख सोय, जाहु तात अब तुम भवन”॥३१॥
तब पुनि कियो प्रनाम, लहि असीस अक्रूर सन।
गवने सुन्दर श्याम, निज गृह भीतर जननि संग॥३२॥