पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१०१

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अहो सुहृदवर एक बात, चहत हम पूछिबे।
कहहु कृपा करि नेक, हित विचारि चित आप अब॥४७॥
लै बहु विधि उपहार, सकल गोप संग हम चलें।
इत लखिबै घर द्वार, राखि कृष्ण बलराम कहँ॥४८॥
अनुचित तौ कछु नाहिँ कारन नृप को कोप तौ।
आशंका मन माहिँ, बिबिध उठत बिन कारनै॥४९॥
तासों कहहु विचारि, श्रेयस्कर जो होय तिहि।
मैं न सकौं निरधारि पूछत तुम सों जानि हित॥५०॥
बोल्यो तब अक्रूर, मुसुकुराय नंद राय सों।
संसय सब करि दूर, चलहु सुतन लै संग तुम॥५१॥
नहि चिन्ता को काम, कैसेहू यामैं कछु।
लहि सब भाँति अराम, आनन्दित है हौ सबै॥५२॥
राम कृष्ण दोउ भाय, अवसि बुलायो भेज नृप।
कह्यो मोहि समुझाय, ल्यावहु तिन कहँ जतन सो॥५३॥
बिबिध अलौकिक काज, कीन्यो इन सुनि चाव सों।
चहत मिलन महराज, निज सामन्त समुझि सबल॥५४॥
कह्यो यदपि समुझाय, बिविध भाँति अक्रूर ने।
पै न सके नन्दराय, निज चित चिन्ता दूर करि॥५५॥
बहु बीती निसि जानि, कहो नन्द अक्रूर सों।
बिछी सेज सुख दानि करहु आप विश्राम अब॥५६॥
हमहूँ सोवन जात, पुनरपि याहि विचारिहैं।
चलिबो उतै प्रभात, कौन कौन संग है उचित॥५७॥
नन्द गवन गृह कीन, लख्यो यशोदा अनमनी।
कीने बदन मलीन, सोचत मोचत नीर दृग॥५८॥
यदपि गयो जिय जानि, नन्द राय कारन व्यथा।
निकट जाय गहि पानि, तऊ ताहि पूछन लगे॥५९॥
नन्दरानि तब रोय, कह्यो कहा पूछन चहौ।
सब सुख साधन खोय, देन चहत यह आइ इत॥६०॥