पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१०२

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कुटिल कुचाली कूर, कहवावत अक्रूर जो।
करहु कोउ विधि दूर, याहि निगोड़े निरदई॥६१॥
नतरु निपूतो प्रात, लै जैहै सँग आपने।
छलबल करि दोउ भ्रात, छगन मगन मम प्रान प्रिय॥६२॥
ये दोउ मेरे लाल, दोऊ मेरे दृगन सम।
जिन विन रहति बिहाल, बछरन चारन जात जब॥६३॥
तब मथुरा को जान, भला कौन विधि सहि सकौं।
बरु तजि दैहौं प्रान, जान न दैहौं कैसहूँ॥६४॥
कहा बुलावत कंस, इन दोउ भोले बालकन।
होय तासु निरबंस, जो इन लखै कुदीठ सों॥६५॥
कस कछु करहु उपाय, जाय भाजि अक्रूर निसि।
नतरु अवसि फुसिलाय, लै जैहै वह प्रानधन॥६६॥
ये दोउ बाल अयान, भलो बुरो जानै न कछु।
उत्सव सुनत महान, ठान लियो उत जान मत॥६७॥
समुझायो बहु बार, मैं तिन कहँ सब भाँति सन।
पै न रुकन स्वीकार, करत कैसहूँ वे दोऊ॥६८॥
जातो कोउ विधि मान, कहन सुनन सो बड़ो पै।
सुनत देत नहिं कान, छोटो है खोटो निपट॥६९॥
लगै युक्ति तब कौन, कहत न मैय्या सोच करि।
लखि हौं जो सब तौन, तो कहुँ आय सुनाय हौं॥७०॥
लखी मधुपुरी नाहिं, राजधानि कोउ नृपन में।
तिहि निरखन मन माँहि, अहै लालसा लागि अति॥७१॥
तिन दोउन लखि संग, उत्सव विविध प्रकार यह।
खेल कूद बहु रंग, देखि दोऊ संग आइहौं॥७२॥
या मैं का डर तोहिं, द्वै दिन जाबे मैं उतै।
सकत जीति को मोहिं जुद्ध जुरे जोधा जगत॥७३॥
निपट अटपटी बात, कहत हँसत नटखट निठुर।
करूँ कहा न सुझात, नहिं बसात वासों कछू॥७४॥