पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१०३

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-७५-

सुनि यसुदा की बात, नन्दराय ठगि से गये।
कह्यो कछू नहिं जात, मोह महोदधि मैं परे॥७५॥
मनहीं मन अनुमान, करन कहा तब कै सकत।
जब चाहत ये जान, कौन रोकि है तब उन्हें॥७६॥
त्यों नृप को आदेस, टारि कहाँ हम बचि सकत।
चिन्ता यदपि विशेष, अहै जाइबे मैं उतै॥७७॥
पै नहिं और उपाय, जब याको कोउ लखि परे।
तब जगदीस सहाय, करिहै निश्चय अवसि कछु॥७८॥
पै जसुदा किहि रीति, धीर धारिहै है जननि।
याकी मोहि प्रतीति, प्रान त्यागि है वह अवसि॥७९॥
समुझाऊँ कहि काह, यह नहिं समुझाई परै।
अब हरि हाथ निवाह, कहि मन धीरज धारि हिय॥८०॥
लग्यो कहन समुझाय, जसुमति कहँ नदराय जू।
बारम्बार बुझाय, नहिं चिन्ता को काम कछु॥८१॥
मैं तिनके संग जात, सब लखाय उत्सव उतै।
लै आवहुँ दोउ भ्रात, सहित कुशल तेरे निकट॥८२॥
द्वै दिन धीरज धारि, हे सुन्दरि तू कोउ विधि।
यह चित माँहि विचरि, गाय चरावन जात बन॥८३॥
मैं नहिं देतो जान, उन्हें साथ अक्रूर के।
उत्सव निरखन ध्यान, वे न मानिहैं कोऊ विधि॥८४॥
तब फिर कौन उपाय, कीजै बतलाओ समुझि।
वे दोऊ मचलाय, जैहैं सँग जैहैं अवसि॥८५॥
समुझावत बहु भाँति, नंदरानी नँदराय जू।
महामोह मैं मानि, पै न सुनति वह बैन कछु॥८६॥
चली निसा वरु बीति, चुकी न इनकी बतकही।
समुझायो सब रीति, पै जसुमति समुझी न कछु॥८७॥
सब वृज मंडल बीच, समाचार फैल्यो यहै।
सबै ऊँच अरु नीच, नर नारी सोचन लगे॥८८॥