पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१०४

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जाँय उते नँदराय, कृष्ण गमन उत ठीक नहिं।
कहैं सबै अनखाय, सहस मुखन एकहि बचन॥८९॥
सुनि गुन गन गोपाल, कंस बुरो मानत मनहिं।
तासों तित इहि काल, गमन उचित नहिं ता सुअन॥९०॥
रोकौ तिय चलि ताहि, कैसेहु जान न पावहीं।
बहु समझाय सराहि, विविध भाँति कर जोरि कै॥९१॥
लै २ कै सिर भार, नृपति उपायन सब कोऊ।
चलो नन्द के द्वार, मिलि सब सँग समुझावहीं॥९२॥
यों कहि सब गोपाल, चले नन्द के भवन कह।
उन पीछे बृजबाल, चली सबै मन विलखती॥९३॥
कोउ कहति हे वीर, कैसी यसुदा मंद मति।
जिन धार्यो उर धीर, कृष्ण गमन सुनि मधुपुरी॥९४॥
कहैं केति सखि प्रान, मैं तजि देहौं जात उन।
यह निश्चय तू जान, रोकि कोउ विधि नन्द सुत॥९५॥
कोउ कहति गहि फेंट, राखौंगी मैं स्याम को।
होनि देहि तौ भेट, वासों मेरी हे भटू॥९६॥
भाखति कोउ चल बीर, नन्द द्वार अब वेगहीं।
कहूँ न वह बेपीर, छल बल करि भाजै निकरि॥९७॥
कहैं किती वृज बाम, अरी निपट वह निरदई।
जैहै भजि घनश्याम, कैसेहु कछु नहिं मानिहै॥९८॥
तासों चलि नंद गेह, मरौ सबै विष खाय उत।
कहा होइहै देह, प्रान जात जब है सखी॥९९॥
कहत विविध यों बात, ब्याकुल ह निज सखिन सों।
चली सबै बिलखात, नन्द सदन वृज की बधू॥१००॥
सुनत प्रजा गन सोर, सोचत समुझत चकिजकति।
रुकति रुदित करि रोर, भोर होन के प्रथम ही॥१०१॥