से विदित हो जाता है। चौधरी साहब ने होली आदि उत्सवों पर होली ही नहीं पर कबीर की भी बड़ी सुन्दर रचनायें की हैं। जैसे:
"कबीर अर र र र र र र हाँ।
होरी हिन्दुन के घरे भरि भरि धावत रंग,
सब के ऊपर नावत गारी गावत पीये भंग,
भल्ला भले भागें बेधरमी मुँह मोरे।"
विवाह आदि शुभ अवसरों पर गाने के उपयुक्त भी उनकी सुन्दर रचनाएं हैं। जैसे—बनरा के गीत, समधिन की गाली इत्यादि। उदाहरणार्थ:--
"सुनिये समधिन सुमुखि सयानी।
आवहु दौरि देहु दरसन जनि प्यारी फिरहु लुकानी॥
फैली सुभग सरस कीरति तुव, सुन सबहिन सुखदानी॥"
अन्त में मैं इतना कहना चाहता हूँ कि मुझे चौधरी साहब के सत्संग का अवसर उस समय प्राप्त हुआ था जब वे वृद्ध हो गए थे और उनकी लेखनी ने बहुत कुछ विश्राम ले लिया था। फिर भी उनकी एक-एक बात का स्मरण मुझे किसी अनिर्वचनीय भावना में मग्न कर देता है। साहित्य में उनका स्मरण आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रथम उत्थान का स्मरण है।
रामचन्द्र शुक्ल
आश्विन कृष्ण ३, १९९६)