पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

युगल मंगल स्तोत्र दोहा मुरली राजत अधर पर उर विलसत बनमाल । आय सोई मो मन बसौ सदा रंगीले लाल॥ सीस मुकुट कर मैं लकुट कटि तट पट है पीत। तर गो लै गावत गीत ॥ वृज सुकुमार कुमारिका कालिन्दी. के तीर। गल बाँही दीन्हें दोऊ हँसत हरत भवपीर । कुंडलिया जमुना तीर तमाल अमंद। लसत ललित सारी हिये मंजुल माल जयति सदा श्री राधिका सह माधव वृज चन्द ॥ सह माधव वृज चन्द सदा विहरत वृज माहीं। कालिन्दी के कूल सूल. भव रहत न जाहीं॥ बद्री नारायण भोरहि उठि दोउ पागे रस। दोउ मुख ऊपर छुटे केश नैनन मैं आलसः ॥ दूसरी कुंडलिया दोऊ गल वाहीं दिये ठाढ़े जमुना तीर। मंगलमय प्रातहिं उठे राधा श्री बलबीर ॥ यह प्रेमघन जी की सर्वप्रथम कविता है। इसके पूर्व की कविताएं गीतों तथा फुटकर सवैया इत्यादि में होती थीं पर वे न तो प्राप्त हैं और न उनका उल्लेख ही प्रेमघन जी ने किया है। प्रेमघन जी के द्वारा भी यही कविता प्रथम कही जाती थी। पहले की रचनाओं के विषय में कविको भी यही धारणा थी।