पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१३८

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राधा श्री बलबीर दोऊ दुहुँ रस अनुरागे।
झंपत पलक द्रिग अरुन भये घूमत निशि जागे॥
बद्री नारायण छुटि कच शुभ राजत सोऊ।
चुटकी दै जमुहात खरे अरसाने दोऊ॥

तीसरी कुंडलिया

लाल लली तन हेरि के महा प्रमोदित होत।
करि चकोर चख लखत मुख मंगल चन्द उदोत॥
मंगल चन्द उदोत राहु सम केश रहे सजि।
मृग सम जुग द्रिग देखि दुःख काको न जातभजि॥
बद्री नारायण प्रमुदित कै बारयो तन मन।
भाज्यो मन्मथ लाजि विलोकत लाल लली तन॥

मालिनी छन्द

प्रातहि उठि दोऊ राधिका कृष्ण सोऊ।
तर सुभग लता के तीर मैं भानु जाके॥
हरि मुरलि बजावें राधिका द्विग नचावें।
बहु भावें दिखावें कोटि कामै लजावें॥
हरि प्रिय दिशि जोहैं देखि कै चित्त मोहैं।
कुटिल जुगल भौहैं सीस पै विन्दु सोहैं।
अलकावलि काली चीकनी चूंघुराली।
जग मैं अस को है देखि कै जो न मोहै॥

छप्पै

मंगल प्रातहिं उठे दोऊ कुंजनि तैं आवत।
मंगल तान रसाल सुमंगल वेनु बजावत॥
मंगलमय अनुराग भरी हरि बचन बत्यावत।
मंगल प्यारी विहँसि श्याम को चित्त चुरावत॥