द्वितीय संस्करण का निवेदन
उन्नीसवीं सदी के अन्तिम चरण में बाणी के जिन साधकों ने हिन्दी को प्राणदान दिया है, उनमें प्रेमघन जी का अन्यतम स्थान है। वे आधुनिक हिन्दी के उन इने-गिने प्रवर्तकों व उन्नायकों में हैं जिन्होंने स्वान्तःसुखाय ही हिन्दी की सेवा द्वारा अपना अमर स्थान प्राप्त किया है।
अतीत की स्मृति में मनुष्य के लिए स्वाभाविक आकर्षण होता है। हृदय के लिए अतीत मुक्ति लोक है जहाँ वह अनेक बन्धनों से छूटा हुआ अपने शुद्ध रूप में विचरता है। वर्तमान हमें प्रिय रहता है क्योंकि उसमें हमें जीवन के क्षण-क्षण के चित्र मिलते हैं और अतीत हमारी बीच-बीच में आँखें खोलता है। इसी अतीत और आधुनिक भावनाओं से प्रेमघन जी ने हिन्दी साहित्य का सृजन किया।
आपने जिस प्रकार अपने साहित्य में व्यक्तिगत अतीत जीवन की मधु स्मृतियों को सन्निविष्ट किया है, उसी प्रकार अतीत नर जीवन के भी स्मृत्याभास के चित्र, जीर्ण जनपद, अलौकिक लीला, कलिकाल तर्पण आदि कविताओं में प्रतिष्ठित किए हैं। जिस पर समय की गहरी छाप है और उसी से उनके व्यापक मनोदृष्टि का पूर्ण परिचय प्राप्त हो जाता है। उनके इन स्मृति स्वरूप कल्पनोद्गारों में कितनी मधुरता, कितनी मार्मिकता और कितनी वास्तविकता है, चाहे ये कुछ परम्परागत ही क्यों न हो, यह स्पष्ट हो जाता है।
अतीत के प्रभावशाली विचारों, प्रथाओं तथा समय के पर्यवेक्षण के बाद जब कवि की दृष्टि जगत और जीवन की ओर पड़ती है, उस समय कवि अपने समय का सच्चा आलोचक बन जाता है। जगत और जीवन के व्यापार कवि के हृदय पर मार्मिक प्रभाव डाल कर उसके भावों को रोचक रूप में परिवर्तित करते हैं। कविकल्पना द्वारा उपस्थित. जीवन की प्रत्येक लीला का अपने काव्य में वास्तविक वर्णन करके साहित्य में अपनी भावनाओं को अमरता प्रदान करने में समर्थ हुआ है।
प्रेमघन जी का हृदय साम्राज्य बहुत व्यापक था। उसमें उदारता, भावुकता तथा गम्भीरता की प्रधानता थी। कवि में आत्मसम्मान की भावना स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। देश के सच्चे हितैषी तथा आर्यमर्यादा के पोषक प्रेमघन जी की कविताएं उन्हें युग का प्रतिनिधि कवि बना देती हैं और समय के साथ-साथ कवि के