बद्रीनारायण जू कुच के नहिं चूचुक ये न कहैं हम झूठे।
संभु के शीश पै जाय रह्यो है दोऊ कर काम दिखाय अनूठे॥
९
न हेरहु व्यर्थ कोऊ उपमा मन माँहि मसूस करो न महान।
सुनो कबि बद्रीनारायण जू की गिरा मनमोहनी पैधरि ध्यान॥
दोऊ दृग बान धरे मुख मंडल भूषित भौंहन की बलवान।
मनो अलकावलि राहु बिलोकत मारत चंद चढ़ाय कमान॥
१०
खम्भ खरे केदली के जुरे जुग जाहि चितै चित जात लुभाई।
हेम पतौअन सो लदिकै लतिका इक फैलि रही छवि छाई॥
ये कवि बद्रीनारायण तापें खिले जुग कंज प्रसून सुहाई।
हैं फल बिम्ब में दाडिम बीज दई यह कैसी अपूरबताई।
११
भरो जल सुन्दर रूप अनूप सरीरहिं है सर स्वच्छ नवीन।
मृणाल भुजा तृबली है तरंग तथा चक्रवाक पयोधर पीन॥
लखो टुक बद्रीनारायण जू कबि वार बहार सवार अहीन।
अहो यह नाचत है मुख मैं दृग ज्यों इक बारिज पै जुग मीन॥
१२
पीन पयोधर शंभु तहीं कल काम कमान सुवै छवि छाजत।
है विपरीत जु नासिका कीर लखे अलकावलि जाल न भाजत॥
देखिए बद्रीनारायण जू दृग आनन पै कहिबे की न हाजत।
है जहँ पूरन इन्दु प्रकाश विकास तहीं अविन्द विराजत॥
१३
कुन्दन सों दमकैं दुति देह सुनीलम सी अलकावलि जो हैं।
लाल से लाल भरे अधरामृत दन्त सु हीरन सजि सोहें॥
बद्रीनरायन जू ललचाप न रन्त मई लखि कै अस को है।
बाल प्रवालन सी अंगुली तिन में नख मोतिन से मन मोहै॥