पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१६४

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नाच रहे मन मोद भये कल कुञ्ज करैं किलकार कलापी।
जाय रहे मधुरे सुर चातक मारन मंत्र मनोज के जापी।
झिलियाँ यों झनकारि कहै कवि बद्रीनारायन वीर प्रतापी
आप गयो विरही जन के वध काज अरे यह पावस पायी।

३३


मंजु मंजुल मुक्तावलिन मैं विलसत बदन अमंद।
उडगन गन सह सरद निसि मनहुँ प्रकाशित चन्द।
सहित राहु राकेश क्यों नेकहु नाहिं उदास।
जुगुल अमल अचरज कमल कलिका कलिव विकास।
अवलम्बित आनन अमल अलकावली लखाय।
ऐरी एक अरविन्द पै अलि अवली अस आय।
चंचल चित्त चकोर यह क्यों न हाय अकुलाय।
जो धन घूघट सोन छिन मुख मयंक दरसाय।
दृग पावस हेमन्त हिय ग्रीषम चित्त के साथ।
तीनहुं रितु तुम विन यहाँ प्रियवर बद्रीनाथ।