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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१६७

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गुन गन वाके कथन में हौं, का करूं बखान।
योतिर्विद ऐसो नहीं निरख्यो सुन्यो सुजान।
विद्याबुद्धि निधान ज्यो, तैसो सरल स्वभाव।
तपै निपट अलोभता, पूरब पुण्य प्रभाव।
नष्ट कुन्डली विरचिवो, प्रश्न भाखिवो मूक।
ठीक पारथ कथन में फल अरु विफल अचूक।
यद्यपि कछू स्वारथ नहीं परमारथ पर ध्यान।
मीठे वचनहि कहि भयो सगरो जग प्रिय प्रान।
राजा महाराज तथा पंडित विवुध सुजान।
मान पत्र तुमको दियो, अग्रेजन सुखदान।
ते सिगरे गुन गन ग्रसित, निरखे मैं निज नैन।
अधिक प्रशंसा को सुअव, तासो फल कछु हैन।
तऊ प्रशंसा पत्र यह लेहु प्रेम के साथ।
बदरी नारायण लिखित, कुछ निज गुन गन गाय।

बाल कविता
मङ्गलाचरण



देत पदारथ चारिहु, भक्तन आपु भिखारी।
बन्दौ पशुपति ज्ञान निधि, अशिवरूप शिवकारी।


जाके पाप सरोजरज, पायलहत फल चारि।
जासु छीर सागर सयन, वन्दहुँताहि विचारि।


पंगु चढ़त गिरवर तुरत, मूरख कवि है जात।
बन्दतही गज मुख सदा, मन भ्रम तुरत परात।
जो काटत तम पुँज को, वन्दत हौ अव तेहु।
अन्धकार मम हृदय को, दिनकर दिनकर देहु।