पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१६८

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ए अलवेले नवल मन मोहन वारे छैल।
कहा गुरेरै तूं खरो, लिये नैन विगरैल॥


एक पुरी परम ललाम। चर नादि गढ़ है नाम॥
तेहि नगर दच्छिन ओर। परवत है एक सुठोर॥
तेहि नाम दुर्गाखोह। फलफूल फल तरु सोह॥
नाना लता द्रुम कुंज। चहु ओर अलिगन गुंज॥
चातक पपीहा सोर। वदि लेत है चित चोर॥
लोती घटा छितिचूम। पौनन रहे तरु भूमि॥
दामिन दमकत जोर। दादुर करत अति सोर॥
पुरवाई पौन झकोर। फेकत सुवृक्षहि तोरि॥
ऋतु देखि पावस केरि। वावरि भई मन मेरि।


आये सखि सावन सोहावन लगी है वन,
आए मन भावन न गावन-तियां लगी।
झिल्ली बोलै चहुँ ओर नाचन लगे है मोर,
ठौर ठौर वकन की अवलियां लगे लगी।
बद्रीनाथ बादर चलन लगो नभ वीच,
 दादुर पपीहा धुनि कानन पर लगी।
कहा कहूँ आली नहि आए वनमाली-ऐसी,
काली निसवीच दौरि दामिनि दुरै लगी।


कारे कारे वादर कितार वधि वधि चले,
चिगन के गनको अकास में प्रकास है।
चंचला की गतिचित चोट चट देत,
नैन खोलन को मिलन न नेक अवकास है।