सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१५७ दान किये कै बार जे, सकल जगत एक साथ। अब लौं जाकी सब प्रजा, गावत नित गुन गाथ । इक्षाकू हरिचन्द रघु, अज दिलीप श्रीराम । रहे न वे अब नाहिं वह, राज' साज धनधाम ॥ प्रतिष्ठानपुर नाहिं वह, इन्द्रप्रस्थ वह नाहि ॥ चन्द्रवंश के नृपति नहिं, अब वे कहूँ लखाहिं ॥ भीषण द्रोण न युधिष्ठिर, अरजुन बिदुर न भीम । नांहि सुयोधन करण कृप, योधा बिवुध असीम ।। शुचि अग्रछित हेतु जे, रचे घोर संग्राम ॥ ललकि लरे मरि मिटे न, लियो नैन को नाम । आज तिनहिं के बंस मैं, सूचि अग्र भरि भूमि। नहिं लखियत आए सकल, जगत हाय हम घूमि ॥ रही न वह मथुरा गई, यह लूटी के बार। नहिं वह उज्जैनी न वह, महाकाल आगार। कहां गई वह द्वारिका, अद्वितीय ही जौन यदुवंशी श्रीकृष्ण संग, छिपे किते है मौन । नहिं वह गुर्जर अब रह्यो, ढाह्यो खल महमूद। सोमनाथ को वह न गृह, जो देखहु मौजूद ॥ दस करोड़ को रत्न जहँ, पायो म्लेच्छ नरेस । आरत भारत मैं रह्यो, हाय कहां अबसेस ॥ नहिं चित्तौर वह जहँ रहे, एक एक से बीर। भारत अभिमानी महा, राना बंस अखीर॥ लाखन बीर कटे जहाँ, भे अगनित संग्राम। नदी लहू की जहँ बही, बार अनेक ललाम ॥ कटे अनेकन यवन नृप, सैन सुभट संग खेत। तहाँ आज यह हाय क्यों, कछु न दिखाई देत॥ पाटलिपुत्र गयो कहां, तेरो गजब हाय आज कन्नौज मैं, लखियत धूरहि धूर॥ । 1 गरूर।