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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१८८

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१५८ रह्यो न वह पञ्जाब अब, रह्यो न वह कशमीर। पूना करि सूना गयो, कितै शिवाजी बीर ॥ रहे न वे आरज नृपति, न्याय परायन धीर। धरम धुरन्धर धनुरधर, प्रजा बन्धु वर बीर॥ अभिमानी छत्री महा, बीर गये नसि हाय। अस्त्र शस्त्र विद्या गई, धौं कित मनहुं बिलाय॥ कहां गये वे विप्रवर, ऋषि मुनि परम सुजान। याग्यवल्क्य जाबालि मनु व्यास कणाद समान ॥ गौतम जैमिनि से विबुध परसुराम से वीर। हाय देखि मुख कौन को, भारत धारे धीर ।। रहे बुद्ध नहिं स्वामि श्री, शंकर सहस सुजान। मल्ल सेठ नहिं वे रहे, धनिक कुवेर समान ॥ देत पौसला बिप्र अब, खासे बने कहाँर। रेलन के स्टेसनन, डोलत डोलन धार॥ अस्त्र शस्त्र ढोवत रहे, जे सब छत्री लोग। बोझा ढोवत आज लखि, तिन्हें होत अति सोग ॥ वैश्य वरण सब घूमते, मांगत भीख मुदाम। शूद्र द्विजन उपदेशते, कहि कहि कथा ललाम ॥ लिये वेद अब बांचही, तेली और कुम्हार। रामायण भारत कहत, हैं कलवार चमार॥ वैरागी गोस्वामि सब, राखे द्वै द्वै राँड़। निज चेली सुरभीन के, हित तौ मानौ साँड़॥ बने गृहस्थ सबै अबै, रँडुआ त्यागी दीन। अपने पेटन की फिकर, मैं धावत लौ लीन । रह्यो न धन बल बुद्धि अरु, विद्या को अब नाम। हाय अविद्या छाय करि, दियो याहि बे काम ॥ जो सिगरे संसार को, रह्यो तत्व सम देस इन्द्र लोक अलका सरिस, जाकी छटा हमेस ॥