पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१८९

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१५९ - जहँ के नृप जग नृपन सन, सादर बन्दित पाय। जासु प्रताप दिगन्त लौं, रह्यो सूर सम छाय॥ अँह के सासन सों रह्यो, शासत सब संसार। अँह की सिच्छा सो भयो, सिच्छित जगत गवार । विद्या सबै प्रकार की, निकरी अँह सो आदि दरसन को दरसन कियो, प्रथम जहीं के वादि ।। गने गनित सों गति सहित, तारा गन गुन मान । प्रथमैं ग्रहन हिसाब ह्याँ, ई के कियो सुजान। उग्यो सभ्यता लता को, बीज प्रथम जा ठाँव। सुन्यो सकल जग प्रथम अँह, आर्य शिल्प को नांव ॥ धर्म दिवा कर के प्रथम, कर को भयो प्रकास। जहां जगत सों प्रथम यह, वह भारत आकाश । ग्यान चन्द्र की चन्द्रिका, छितरानी छित जौन। ह्यांई की फूली प्रजा, प्रथम कुमुद सुख भौन ।। सकल जगत सों हीनता, लखियत याही ठौर ।। लुटत कटत दिन दिन फुकत, रह्यो बहुत दिन जौन। जहँ अशेष विद्यान के, ग्रंथ ढेर के ढेर। जलत रहे ज्यों सैल के, दावानल की घेर। देवालय फूटे सकल, गई मूरतें टूटि। पकरि पुजारी जे परें, यवन बनै भल कूटि । राजकुमारी सुन्दरनि, के सत नासन काज। लाखन मनुज कटे यहां, धरम त्यागिबे काज ॥ सुन्दर बालक बालिका, लौंड़ी बने गुलाम। म्लेच्छ देस में बिके जे, द्वै द्वै मुद्रा दाम ॥ बिना धर्म आचार के, बिन विद्या अभ्यास। रहे कई सौ बरस लो, ऐसे सत्यानास ॥ पर अब तो ये और हू, लटे गिरे से जात। खाए जे आघात सो, अब जनु इन्हें पिरात ॥