पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१९०

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१६० पैर विवशता की परी, बेरी अति मज़बूत। असत धरम के जेल में, बैठे धारि सकूत ॥ ढोवत सिर नीचे किये, सदा बोझ दासत्व। भूलि गये ये आपनो, अगिलो हाय महत्व ॥ टिकस नाग तापै डॅस्यो, एक एक को टोय। कैसे बचे न पास जब, शक्ति औषधी होय ॥ फ़स्त तिज़ारत की लगी, बद्ध डोर कानून। द्रव्य हीन तासों भये, ए पागल मजमून ॥ कहा करै ए निबल कछु, करिबे लायक नाहिं। लिख्यो विधाता नाहि सुख, इनके भालन माहि ॥ नहीं वीरता प्रथम जब, तब दूजी क्या बात। कला कुशलता बुद्धि वा, विद्या धन न लखात ॥ फिर कैसे कारज सरे, जब ये सब सों हीन। गिनै कौन इनको भला, हौ तेरह की तीन । गई वीरता जौन दिन, राज गयो दिन तौन। राज बिना विद्या गई, बिन विद्या बुध कौन ॥ बुद्धि बिना धन हीन है, मान प्रतापहि खोय। रोय रोय के हाय ए, रहे और मुँह जोय ॥ त्रस्त भये ए तबहिं के, थर थर काँपत जाय। अब लौं डाढ्ये दूध के, छाछ छुअत सकुचायँ ।। दुःख निशा बीती यदपि, पै ए जागै नाहिं। यदपि धूप नहिं पै लियो, ए छाता रहि जाँहि ॥ ए न बिचारै हाय कुछ, अपनी दसा अचेत। नहिं देखें का जगत में होत स्याह वा सेत॥ देखें जो कुछ और सो, करैं न तासु बिचार। चलें भूलि नहिं ए कबौं, खलता के अनुसार। औरन की जौ गहें तो, चुनि के परम कुचाल। जामैं हानि न लाभ लहि, होत सदा पामाल॥