पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१९१

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सुनत न ए कोऊ कहै, इनके हित की बैन करें बिचार न मन कछू, अस उरझे सुरझै न॥ करें न ए उद्योग कछु, महा आलसी होय। आस करम आधीन सब, राखे मन मैं गोय॥ यद्यपि याही चाल सों, होत जात बरबाद। पै ये जड़ जानें नहीं, हा उद्यम को स्वाद । विद्या उपकारी जिती, ताहि पढ़े को, नांहि। कथा कहानी सिखन हित, इस्कूलन मैं जाहिं। कला कुशलता शिल्प की, क्रिया न सीखन जाय। करें अनत व्यापार नहि, नित घर बैठे खांय॥ याही चालन सों दिये, राज पाट सब खोय। पर खोवन की चाल को, इनसों त्याग न होय ॥ सब कछु खोए अब नहीं, रह्यो कछू जब पास। तब ए लागे अधम पशु, करन धरम को नास ॥ औरन के खोटे धरम, भले किये स्वीकार। पर जब याहू सों गये, निलज नीच ए हार॥ तो आपै विचरन लगे, मन माने बहु धर्म। जाको जो भायो लगे, सोई सेवन कर्म ॥ वरण विवेक रह्यो न कछु, रह्यो न नेक विचार। धरम वही सबको रह्यो, जो जेहि सुख दातार ॥ नहीं वेद अरु शास्त्र को, नाहिं पुरान प्रमान। धरम कहावै एक अब, निज मन को अनुमान ॥ सन्ध्या कोऊ नहि करत, अतिथि न पूजे जाहिं। बली वैश्व नहिं होत अरु, अग्नि होत्रहू नांहिं । कौन श्राद्ध तर्पण करत, अब या भारत माहि। देव दरस पूजन कभौं, ए जड़ जानहि नाहिं। प्राणायाम करै भला, ए कब साध समाधि । जोग जुगुत जिनके मते, विरथा बाधा व्याधि ॥