१९४ - जो कुछ किया भले भर पाया सोच सोच सकुचाऊँ। कहो प्रेमघन प्रेमघन प्रेम कहानी कैसे किसे सुनाऊँ। जाऊँ रोज मजा लेने को अगर माल दे आऊँ। बिन देखे कल नहीं न बिन रुपये के घुसने पाऊँ। कहाँ मिले दुनिया की दौलत जिससे उन्हें रिझाऊँ। कहो प्रेमघन प्रेम कहानी कैसे किसे सुनाऊँ। मुं देखी बातें भी उनकी सुन सुन कर मुसुकाऊँ। साफ़ जवाब लाख अर्जी पर भी जब हाय न पाऊँ। झूठी फ़िक्रे बाज़ी की बौछारों से घबराऊँ। कहो प्रेमघन प्रेम कहानी कैसे किसे सुनाऊँ। हजार आशिक अपने ही से जब मैं उसको पाऊँ। सब के संग बरताव जियादा अपने से लख पाऊँ। मगर व अपना ही सा जचता है तब क्या बस लाऊँ। कहो प्रेमघन प्रेम कहानी कैसे किसे सुनाऊँ॥ उस दिलवर के फ़िराक़ में चित चूर रहै गुन गाऊँ। गो हमसे वह रहे न खुश पर आशिक तो कहलाऊँ।। इसका सबब कोई पूछे तो कहकर क्या फल पाऊँ। कहो प्रेमघन प्रेम कहानी कैसे किसे . सुनाऊँ।। दिल के गुलशन की बहार में मस्त रहूँ सुख पाऊँ। नहीं है ख्वाहिश और किसी से जिससे सीस नवाऊँ। जो इस मजे से ना वाकिफ़ हैं उनको क्या समझाऊँ। कहो प्रेमघन प्रेम कहानी कैसे किसे सुनाऊँ।
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२२५
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