पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- पालै जग सकल सदाही जगदीस जोई, सिरजत सहजही त्यो चाहि चित छन मै । दूध दधि चाखन को जॉचे ग्वालनीन ढिग, नाचै दिखराय रुचि रचक माखन मै॥ प्रेमघन पूजत सुरेस औ महेस सिद्धि, नारद मुनीस जाहि ध्यावै सदा मन मै। गोकुल मै सोई कै गुपाल गऊलोक बासी, गैयन चरावत विलोको वृन्दावन मै॥ रानी रमा को बिसारि पतिव्रत, दै मन गोपी सनेह बिसाहो। रीझि लखौ रतनाकर त्यागि कै, बास करील के कुज को चाहो॥ त्यो सुर सेवा न भाई गुपालन, मीत बनै घनप्रेम निबाहो। जो रखबारो रहो जग को, सो बनो ब्रज गैयन को चरवाहो॥ अग छबि ऊपर अनग कोटि, अलकन पर काली अवली मलिन्द की। वारौ लाख चन्द वा अमन्द मुख सुखमा पै, चाल पै मराल गति मातेहु हूँ गइन्द की। वारौ प्रेमघन तन धन गृह काज साज, लाज गुरुजन वृन्द की। वारौ कहा और नहिँ जानौ वीर वामै आनि, बसी मन मेरे बॉकी मूरति गुविन्द की। टेढो मोर मुकुट कलङ्गी सिर टेढी राजै, कुटिल अलक मानो अवली मलिन्द की। लीन्हे कर लकुट कुटिल करै टेढी बात, चलै चाल टेढी मदमातेई गइन्द की। प्रेमघन भौह बक तकनि तिरीछी जाकी, मन्द करि डारै सबै उपमा कविन्द की। वारौ अग सकल समाज १५