पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२३१

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२०० टेढ़ो सब जगत जनात जबहीं सो आनि, बसी मन मेरे बाँकी मूरति गोविन्द की॥ मोहन कामहुँ के मन को, जग की जुवतीन को जो चित चोर है। सेवक जाके सुरेसहुँ से, सोइ चाहत तेरी दया दृग कोर है। भाग भली तू लही ये अली, घन प्रेम कियो बस नन्दकिशोर है। है घनस्याम बनो तुव चातक, जो वृजचन्द सो तेरो चकोर है॥ नव नील नीरद निकाई तन जाकी जापै, कोटि काम अभिराम निदरत वारे हैं। प्रेमघन बरसत रस नागरीन मन, सनकादि शंकर हू जाको ध्यान धारे हैं। जाके अंस तेज दमकत दुति सूर ससि, घूमत गगन में असंख्य ग्रह तारे हैं। देवकी के बारे जसुमति प्रान प्यारे, सिर मोर पुच्छ वारे वे हमारे रखवारे हैं। बेद बने बरही बर बृन्द, रटै शुक नारद से जस जायक। व्यास विरंचि सुरेस महेसहु, के हिय अम्बर बीच बिहारक॥ भक्तन के अघ ओघ भयंकर, ग्रीषम को त्रय ताप विनासक। सोई दया बरसै घन प्रेम, भरो घन प्रेम रटै तुव चातक॥ " लहलही होय हरियारी हरियारी तैसें, तीनो ताप ताप को संताप करस्यो करै। नाचै मन मोर मोर मुदित समान जासों, विषय विकार को जवास झरस्यो करै॥ प्रेमघन प्रेम सों हमारे हिय अम्बर मैं, राधा दामिनी के संग सोभा सरस्यो करै। घनस्याम सम घनस्याम निसिवासर, सदा सो निज दया बारि बुन्द बरस्यो करै॥