पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२३२

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- २०१२ जसुदा को कहावत वारो। । जग वन्दन नन्द को नन्दन, जो वन जो ब्रज को घनप्रेम जो, राधिका को चित चोरन हारो॥ गल मंदिर सुन्दरता को, सुमेर अहै दया सिन्धु सुधारो। जु मराल मेरे मन मानस, को सोई साँवरी सूरति वारो॥ सम्पति सुयस का न अन्त है विचार देखा, तिसके लिये क्यों शोक सिन्धु अवगाहिये। लोभ की ललक में न अभिमानियों के तुच्छ, तेवरों को देख उन्हें संकित सराहिये। दीन गुनी सज्जनों में निपट विनीत बने, प्रेमघन नित नाते नेह के निवाहिये। राग रोष औरों से न हानि लाभ कुछ, उसी नन्द के किसोर की कृपा की कोर चाहिये। हमैं जो हैं चाहते निबाहते हैं प्रेमघन, उन दिलदारों हीं से मेल मिला लेते हैं। दूर दुदकार देते अभिमानी पशुओं को, गुनी सज्जनों की सदा नेह नाव खेते हैं। आस ऐसे तैसों की करें तो कहो कैसे, महाराज वृजराज के सरोज पद सेते हैं। मन मानी करते न डरते तनिक नीच, निन्दकों के मुंह पर खेखार थूक देते हैं। कुच कठिनाई की कहौ तौ कौन समता है, करद कटाछन की काट किहि तौर है। मृदु मुसक्यानि की मजा औ माधुरी अधर, पिय को सजोग सुख और किहि ठौर है। प्रेमघनहूँ को त्यों पियूष वर्षा विनोद, बिचारै करि गौर हैं। अनुभव रसिक