पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२३३

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२०२ 11 रहनि' सहनि सुमुखीन की सुजैसे और, वैसैं सुकवीन की कहनि कछु और है। काली अलकावलि पैं मोर पंख छबि लखि, विलखि कराहैं ये कलाप मुरवान के। पीत परिधान दुति दाब्यो दामिनी दुराय, लखि मोतीमाल दल भाजे बगुलान के प्रेमघन घनस्याम अति अभिराम सोभा, रावरी निहारि लाजे घन असमान के। गरजन मिस करैं दीनता अरज ढारे, अँसुवान ब्याज वारि बिन्दु बरसान के॥ ( स्फुट ) लाज न बुद्धि सो काज कछू, बनई सब बात बिचित्र नवीनी। काह कहूँ घनप्रेम तुम्हें, करता हूँ के नाम की लाज न लीनी॥ अष्टमी के निसि को ससि खास, अकास प्रकासन के हित दीनी। वा सुकुमारी सुहासिनी की, अलकाबलि की ककही नहिं कीनी॥ साँवरी सूरति मूरति मैन, मयंक लखे मुख जासु लजो है। मोर पखौवन को सिर मौर, गरे बन माल धरे मन मोहै। सीकर सोभा सुधा बरसाय कै, आय हिये घनप्रेम अरो है। बावरी मोहि बनाय गयो, मुसकाय के हाय न जानिये को है। आनन इन्दु अमन्द चुराय, चकोर चितै ललचाय न टालो। ठोढ़ी गुलाब प्रसून दुराय, मलिन्दन लोचन सोचन सालो॥ है घनप्रेम दया बरसो रस के बस बानि अनीति सँभालो। रूप अनूपम देहु दिखाय, दया करि हाय न घूघट घालो॥ पावस रट दादुर चातक मोरन सोर, सुने सजनी हियरा हहरें। जुरि जीगन जोति जमात अरी, बिरहागिन की चिनगीन झरें।