-- २१५ - बर बज्र पयोधर पीन महा, बरुनी के बुझे विष भालन सों। बरसै घन प्रेम सुधा ससि आनन, तौ मधुराधर सों। बचि पाय सकै कहो कैसे कोऊ, पै दई अलकावलि व्यालन सों। लालन मान पाँय परे पिय कों झिझकारत, तानत भौंहन मानि मनावन। सावन मैन जगावन सुन सोर लगे बन मोर मचावन॥ छाय रह्यो घन प्रेम प्रभाय, चहूं विरही हियरा हहरानव। छाडि सकोच औ सोच सबै, बलि बेगहि बीर मिलो मन भावन । पीजै॥ मान कही तजि मान लसौं, शुभ सूहे दुकूल सिंगार सजीजै। सावन मैं मन भावन के हिय, सों लगि के अधरामृत यों बरसै घन प्रेम रस, हरसै हिय कै बस पीय पसीजै। सीख सयानी सुनो सजनी, यहि मास मैं सीरी उसास न लीजै॥ 1. बसन्त आग जनु लागी गुले लाला अवलीन, कचनार औ अनारन मैं बरसि रहे अंगार। बौरी अमराई कर बौरी सी दई धौं दई, सुमन पलास नख केहरि सों करें वार॥ प्रेमघन छायो बनि बधिक बसन्त प्रान, बिरही बचेंगे बिधि कौन करिये बिचार।
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२४६
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