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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२६५

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२३५ - मार्तण्ड, ओंकार जय, जातवेद, अक्षर जय अच्युत। दुःख व्याधिहर, सुमनप्रिय, वैद्यवर अद्भुत ॥१०॥ जय जगकर्मसाक्षी, . जय तमनाशन। दहन हिरण्यरेत, कुण्डली, · कृपालु प्रतर्दन ॥११॥ जय जय कश्यप गोत्र विभाकर, अरुण, सुरथ धर। जय जय विभव, विष्णु, जय वेद निलय विश्वम्भर ॥१२॥ जय प्राची तिय तिलक भाल सिन्दूर सुशोभित। जयति प्रतीची भामिनि. गाल गुलाल सुरंजित ॥१३॥ जय तैरत नभ निर्मल ताल मराल मनोहर। जयति प्रफुल्लित कधो कमल सहस दल सुन्दर॥१४॥ जय आकास सिन्धु के मानहुँ दीप स्वर्णमय। के तिहि मथत सुहात सुमणि मय मन्दर अभिनय ॥१५॥ जयति अनादि ज्योतिमय अम्बर महल झरोखे। जयति ब्रह्मा प्रतिबिम्बित दर्पन दिपत अनोखे ॥१६॥ जय जय नभ आराम कल्पतरु कंचनमय भल। देत · उठाये . निज़ कर शाखा. मनमाने फल ॥१७॥ जय जय नभ बन चारिनि कामधेनु. ज्योतिर्मय । हेम थाल मानहुँ चारौ फल परिपूरित जय ॥१८॥ कनक कलस जय. उभय लोक सम्पति जलपूरित ॥ जयति सुदर्शन चक्र भक्त दुख दल दानव हित ॥१९॥ जय जनु. महास्वर्ण सम्पुट सब सिद्धिन संयुत्त। जय अम्बर सागर बड़वानल कुण्ड सुअद्भुत ॥२०॥ जय नभमण्डल पट मंडप बर कलस कनक मय। सूरज मुखी सुमन शुभ नभ बाटिका जयति जय ॥२१॥