पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२६६

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२३६ । तुम विरंचि तुम विष्णु, तुमहिं प्रभु महारुद्र हर। सिरजत पालत जग संहारत तुमहिं निरन्तर ॥२२॥ सिरजत जग दै निज ऊषनता जीव जियावत। दै प्रकास पालत पोषत परिपुष्ट बनावत ॥२३॥ त्यौं लय करत सृष्टि तुमहीं प्रभु प्रलय काल महँ। पुनि आरम्भ करत सिरजन हरि महा तिमिर कहँ॥२४॥ हे प्रभु तुमहिं सकल जग के प्रधान रखवारे। तुमहिं सकल जग जीवन के जीवन धन धारे॥२५॥ तुमहिं असंख्य लोक रंजन तुमहीं अधिनायक। तुमहिं जनक तुमहीं अधार तुमहीं परिपालक ॥२६॥ निज ऊषनता दै जग बीजन तुम उपजावत। निज प्रकास दै सुन्दर विधि तिन कहँ परिपालत ॥२७॥ तुव प्रकास कहँ पाय जीव जग के सब जीवत। तुव प्रकास कहँ पाय जगत सब होत कर्म रत ॥२८॥ निज करसन करसन करि पंकिल भूमि सुखावहु। जग जीवन जीवन हित जग जीवन बरसावहु ॥२९॥ तुमहिं जगत सों अंधकार अधिकार निकारो। सीत भीति अरु रोग कष्ट दै उदय निवारो॥३०॥ तुव प्रकास लहि तारावलि ससि निसा प्रकासत। दीपतिधारी सकल वस्तु निज निज दुति भासत ॥३१॥ तुव प्रकास लखि संकित जन मन त्रास विसारें। तुव प्रकास लखि अधम मनुज निज कृत्य निबारै॥३२॥ तुव प्रकास लखि छुद्र जीव निज हिंसक को भय। तजि विचरत स्वच्छन्द अहार करत निज संचय ॥६३॥