पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२६७

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- २३७ तुब प्रकास खन कैरव संकोचत भय सों भरि। मँगन मुक्त करत अविन्द अवलि प्रफुलित करि ॥३४॥ तुव प्रकास लहि निशा अन्त में मिलि खग संकुल। चितबत प्राची दिसि बिनवति करि कलरव मंजुल ॥३५॥ तुहिं लखि उपस्थान सह अर्घ्यप्रदान विप्रगन। करत वेद निज शाखा मन्त्रन सह प्रसन्न मन ॥३६॥ तुव प्रकास लखि के खूसट उलूक लुकि कोटर। चमगीदर गेदुर गरहित खग भरे भूरि डर ॥३७॥ तुव प्रकास लहि ओस विन्दु मोतिन छवि छीनी। चटकी कली गुलाब मोहि मधुकर मन लीनी॥३८॥ तुमरी ही ऊषणता सों सब अन्न वनस्पति । होत पुष्प फल युक्त बढ़ति पाकति अरु उपजति ॥३९॥ तुव प्रकास लहि सोम तिनहिं पोषण यस पावत। तुव प्रकास लहि पौन समय पर तिनहिं सुखावत ॥४०॥ महा सहा दुख दुखी लोग तुहि आराधत जे। तुव प्रसाद सव क्लेश खोय के सुखी होत बे॥४१॥ राज कोप भाजन जे कारागार निवासी। मुक्त होत तेऊ बिनु संशय तुमहिं उपासी ॥४२॥ जे जे जब जग दुख आरत कै तुम कहं ध्यायो। ते तब मनोभिलासित, तुरत फल तुमसन पायो॥४३॥ महामहिम राजर्षि संकटापन्न भये पूजि तुमैं ते सकलं मनोरथ सिद्ध किये सब ॥४४॥ महाराज श्री रामचन्द्र प्रभु तुव प्रसाद लहिं । सब सुरंगन सों अजित हन्यो रन मध्य रावनहि ॥४५॥ जब।