- २६२ कजली गौरी पंडित बाटेन बड़े विसनियां रे हरी। रानी बड़हर के घुइरन को सुन्दर घाट टिके है रामा। रामदीन पंडित जब देखलैं जजकेनि पटकेनि बहुतै रामा, हरि हरि दौड़ेनि लैक हाथ में पनहियाँ रे हरी॥ मुलायम कजली , बान्हे गले असाठा पाढा घूमः हमारी गलियाँ रामा। अखड़ लोगे देखें उलट तमासा रे हरी। गोरी चिट्टी सूरत कैसी बांह मुलायम मूरत रामा। हरे देख लखल्यः नितम्ब जे सब उर बतासा हरी। हमैं छोड़ि के जालिउ काहे कासी रे हरी। होकर खासी दासी करना तो भी यह बदमासी रामा। पहिले भी साया के करवाना हाँसी रे हरी॥ हम पर आप उदासी, छाई -तू वाटिउ भगवासी रामा। करि औरे सारन से लासा लासी रे हरी॥ लाज सरम सब नासी, घूमी तोहरे पीछे संगें कासी रामा हरे होइ गइली अब तो जानी संन्यासी रे हरी॥ छोड: आस अकासी भोजन मिली सदा औ बासी रामा। आखिर होबिउ जान खानगी खासी रे हरी॥ हम मिरजापुर बासी पहिराईला बुरी निकासी रामा। खि उयाईला रोज मवासी रे हरी। बामन बाग विलासी गावै अलगी अलग लवासी भा। हरि दवसल जालिउ केहुर करत कबासी रे हरी। १. बामनाचार्य।
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२९२
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