पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२९८

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तेरे साधु सुभाय, दयामय नीति विगत छल। माता लौ सुत सरिस प्रजा हित करन वानि वल। भई विलाइत प्रजा अभय, स्वच्छन्द अनन्दित। चढि उन्नति के सिखर जगत जन कियो चकितचित॥ पूरन विद्या, कला, शिल्प व्यापार, मान, धन। लहि अघाय हूँ गई लहै तो हूँ नित नूतन ॥ जासो बटिश प्रजा तो कहँ चित सों महरानी। अपनी मानी, राजभक्ति तो मै दृढ आनी॥ लह्यो और नृप देसराज छल, बल, कौसल सों। पै निज दया सुभाय, न्याय निर्मल के बल सों प्रजा हृदय पर क्यिो राज तुम सदा विगत भय। कियो प्रजा दुख दूर, कियो तिनहित सुख सञ्चय॥ राज्यो कौन राज राजा विन दोष इते दिन । साँचहुँ साठ बरिस राजी इक तुम कलक बिन॥ सम्राट दबायो। खीस बायकै फरासीस जाते सिर नायो। जरमन जर मन मारि बनो जाको है अनुचर। रूम रूम सम रूस रूस बनि फूस बराबर॥ पाय परसि तुव पारस पारस के सम पावत। पकरि कान अफगान राज पर तुम बैठावत॥ दीन बनो सो चीन पीन जापान रहत नत। अन्य छुद्र देशाधिप गन की कौन कहावत॥ जग जल पर तुव राज, थलहु पर इतो अधिकतर। सदा प्रकासत, जामै अस्त होत नहि दिनकर॥ तिन सब मै है मुख्य राज भारत को उत्तम। जाहि विधाता रच्यो जगत के सीस भाग सम॥ जहाँ अन्न, धन, जन सुख, सम्पति रही निरन्तर। सबै धातु, पसु, रतन, फूल, फल, बेलि, बृच्छ तेरो प्रवल प्रताप सकल बर।