पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२९९

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झील, नदी, नद, सिन्धु, सैल, सब ऋतु मन भावन। रूप, सील, गुन, विद्या, कला कुसल असंख्य जन॥ जिनकी आसा करत सकल जग हाथ पसारत। आसृत औरन के न रहे कबहूँ नर भारत। बीर, धर्मरत, भक्त, त्यागि, ज्ञानी, विज्ञानी। रही प्रजा सब पै निज राजा हाथ बिकानी॥ निज राजा अनुसासन मन, बच, करम धरत सिर। जगपति सी नरपति मैं राखति भक्ति सदा थिर।। सदा सत्रु सों हीन, अभय, सुरपति छबि छाजत। पालि प्रजा भारत के राजा रहे बिराजत॥ पै कछु कही न जाय, दिनन के फेर फिरे सब। दुरभागनि सों इत फैले फल फूट बैर जब। भयो भूमि भारत में महा भयंकर - भारत॥ भये बीरबल सकल सुभट एकहि सँग गारत ।। मरे विबुध, नरनाह, सकल चातुर गुन मण्डित। बिगरो जनसमुदाय बिना पथ दर्शक पण्डित ॥ सत्य धर्म के नसत गयो बल बिक्रम साहस। विद्या, बुद्धि बिबेक बिचाराचार ' रह्यो जस॥ नये नये मत चले. नये झगरे नित बाढ़े। परे सीस भारत पै गाढ़े॥ छिन्न भिन्न कै साम्राज्य लघु राजन के कर। गयो परस्पर कलह रह्यो बस भारत में भर॥ रही सकल जग व्यापी भारत राज बड़ाई। कौन विदेसी राज न जो या हित · ललचाई ।। रह्यो न तब तिनं मैं इहि ओर लखन को साहस । आर्य राज राजेसुर दिग बिजयिन के. भय बस ॥ पै लखि बीर बिहीन भूमि भारत की आरत। सबै सुलभ समझ्यो या कहँ आतुर असि धारत॥ नये नये दुख