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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३००

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२७१ निज सीमा सन्निकट सिन्ध पञ्जाब पाय के। पारस को सम्राट लपकि बैठ्यो दबाय कै॥ इहाँ परस्पर कलह रचे आपस के जय हित। नृपति उपेछे परदेसी अरि लघु गुनि गर्वित ।। निज भाई न लरै अरि संग मिलि संक सकाने। उचित समय की करत प्रतिच्छा रहे भुलाने ॥ भर माला भारत को या विधि खुल्यो सकल दिस। औरन कहँ भारत जय आस भई दृढ़ या मिस ॥ ताहि जीति ताको सब देस लेन के व्याजन। सीधो आयो चलो सहायक लहि खल राजन ॥ प्रबल राज यूनान जगत जेता भारत पर। बिजय पाय लघु तऊ समझि बल रुक्यो सिकन्दर॥ बहुरि और यूनानी रहे इतै लौ लाये। पैन राज करि सके लौटि घर गये खिस्याये। पुनि शक लोग अनेक वार आये अरराने। जीति राज कछु किये, अन्त पै हारि पराने ॥ राह खुली लखि फिर तौ चढ़े अरब के राजे। लरि जीते कोउ कहूँ, लूटि कोऊ. कहुँ भाजे॥ कबहुँ तुरुक - अफगान मुगल आये भारत पर। लूटि, मारि नर नारिन लै भागे अपने घर ॥ कोऊ राज इत किये निपट · अन्याय मचाई। दीन प्रजान सँहारि रुधिर की नदी बहाई॥ हरे मान, धन, धर्म, अमित तोरे देवालय। अनाचार की सीमा नाँह. राखी वे निर्दय ॥ अमल प्रफुल्लित देस बनायः मसान भयंकर। पशु समान करि दियो मूढ़ ह्याँ के सुविज्ञ नर॥ कुछ उदारता और न्याय अकबर दिखरायो। ता कहँ औरंगजेब धोय के दूरि बहायो॥