सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२७३ . पै वाकी स्वारथपरता अरु लोभ अधिकतर। राख्यो चित नितहीं निज राज बढ़ावन ऊपर। अरु व्यापार द्वार सों लाभ अपार लेन मैं। उद्यम हीन दीन दुख पै नहिं ध्यान देन मैं। ह्याँ की मूढ़ प्रजा के चित को भाव न जान्यो। हठ करि सोई कियो, जबै जस वा मन मान्यो॥ दियो त्रस्त करि पूरब डरे मानवन के मन। समझ्यो जिन ये चाहत नासन जाति, धर्म, धन ।। देसी मूढ़ सिपाह कछुक लै कुटिल प्रजा सँग। कियो अमित उत्पात रच्यो निज नासन को ढंग। बढ़यो देस में दुख बनि गई प्रजा अति कातर। फेर्यो तब तुम दया दीठ भारत के ऊपर ॥ लैकर राज कम्पिनी के कर सों निज हाथन। किय सनाथ भोली भारत की प्रजा अनाथन ॥ रही जु भारत प्रजा कहावत प्रजा प्रजा की। सो कलंक हरि लियो इन्हें दै समता वाकी॥ धन्य ईसवी सन् अठारह सौ अट्ठावन । प्रथम नवम्बर दिवस, सितासित भेद मिटावन॥ अभय दान जब पाय प्रजा भारत हरषानी। अरु लहि तुम सी दयावती माता महरानी॥ राज प्रतिज्ञा सहित, सान्ति थापन विज्ञापन। मैं अधिकार अधिक निज पुष्ट बिचारि मुदित मन ॥ अति उन्नति आसा उर धरि बिन मोल बिकानी। तेरे हाथनि, मानि तोहि निज साँची रानी॥ करी प्रतिज्ञा जो बहु साँची करि दिखराई। मुरझी भारत लता फेरि तुमहीं बिकसाई॥ बहुत दिनन सों दुखी रही जो भारतवासी। प्रजा दया की भूखी, न्याय नीर की प्यासी॥