पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३०३

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२७४ लय।। पसु समान बिन ज्ञान, मान बनि रही भरी डर। फेरि तिन्है नर कियो आप लघु दिवस अनन्तर ॥ दियो दान विद्या अरु मान प्रजान यथोचित अभय कियो सुत सरिस साजि सुख साज नवल नित शुद्ध नीति को राज प्रजा स्वच्छन्द बनायो। साँचे न्याय भवन में खरो न्याय दिखरायो। देस प्रबन्ध चतुर, दयालु न्याई, दुखहारी। विद्या विनय बिबेकवान शासन अधिकारी। जे नित हम सब प्रजा हेत नूतन सुख साजत। हेरि हेरि दुख हरत डरत जासों भय भाजत ॥ सत प्रबन्ध दिनकर दिनकर नास्यो रजनी दुख। धूप सान्ति की फैली लखि बिकस्यो सरोज सुख ॥ सूझ्यो साँचो स्वत्व प्रजा को भूलि सीत भय। अत्याचारी चोर पराने निज परान धन्य तिहारो राज अरी मेरी महरानी। सिंह अजा सँग पियत जहाँ एकहि थल पानी॥ जॅह दिन दुपहर परत रहे डाके नगरन मैं तहँ रच्छक निरखियत पथिक जन के हित बन मैं॥ जहाँ काफ़िले लुटत रहे तो यतन किये हूँ जिन दुरगम थल माहिं गयो कोऊ नहिं कबहूँ। रेल यान परभाय अँधेरी रातहुँ . निधरक। अंध, पंगु, निसहाय जात अबला बाला तक॥ माल करोरन को बिन मालिक पहुँचत निज थल। अन्य दीपहुँ पहुंचावत धूआँकस · चलि जल॥ डाक, तार को जो प्रबन्ध तेहि जगत सराहत। लाखन रोगी रोज़ डाक्टर लोग जियावत जिहि बन केहरि हेरत मत्त मतंगहि डोलत । तहाँ बन्यो नव नगर सुखी नर नारि कलोलत ॥