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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३०४

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२७५ मय। ॥ अरु राजे। पर्वत अधित्यका जे रहीं कबहुँ कंटक तहाँ शस्य लहरात बालकहु बिहरत निर्भय ॥ जल विहीन थल बीच नहर बनि गईं अनेकन। सड़क हजारन कढ़ी छाँह को वृच्छ करोरन महा महा नद माहिँ सेतु सुन्दर बँधवाए। तड़ित गेस परकास राज पथ रजनि सुहाये॥ बने विश्व विद्यालय विद्यालय पाठालय। पावत प्रजा अलभ्य लाभ जिनते बिन संसय॥ यां बहु भाँतिन करि भारत उन्नति मन भावनि। तब उन्नति अपनी कीनी तुम हिय हरषावनि ॥ हिन्द राजराजेसुरी बनी तुव महरानी। राजसूय के हरष उमड़ि दिल्ली इतरानी॥ भारत के जेते मानी रईस महाराजे, नव्वाब, राव राने छबि छाजे॥ आय जुरे तहँ साम्राज्य अभिषेक विलोकन। राजभक्ति के भाय भरे अतिसय प्रसन्न मन ॥ तुव अनुसासन लाट "लिटन" प्रतिनिधि के मुख सुनि। सीस चढ़ाये सबै स्वत्व निज अधिक पुष्ट गुनि ॥ निज अधीसुरी तुमहिं सबै चित सों करि माने । भये राजराजेसु अधीन जानि हरषाने॥ जौन हिन्द हेरन हित "हेनरी राजा सप्तम"। प्रथम यतन करि मर्यो पता न लह्यो, गुनि दुर्गम॥ समझि सोई “अष्टम हेनरी' हेर्यो नहिं वाको। नृपति “षष्ठ एडवर्ड" खोज पायो नहिं जाको। पता लहनि हित जासु मरी “मेरी" ललचानी। करि करि यतन अनेक “एलिजावेथ" महरानी॥ पता लगायो जासु, पठायो राज दूत इत। लहन राज अनुमति प्रजान व्यापार करन हित॥