पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३१०

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२८१ पावत, करत डाक्टर औषधि अरु सेवक सब सेवा। पथ्य दूध सागू मिस्री अरु मेवा ॥ खोय रोग अरु सोग सुखी जाके रोगी गन। देत असीस अघात नाहि तो कहँ प्रसन्न मन ॥ जे धन हीन कुलीन दीन बिन काज परे घर। बिना आय कोउ भाँति खाय बिन अन्न रहे मर।। निराधार बिधवा परदा वारी जे नारी। बिना अन्न, धन बिन गति भूखन बिलखन वारी॥ कुल मर्यादा बस अनसन व्रत मानहुँ ठाने। बिना प्रकासे भेद मरन निज भल जिन जाने। घर बैठे बिन काज, बिना माँगे प्रति मासहि। दै दै द्रव्य दियो तुम तिन जीवन की आसहि ॥ तृप्त आतमा तिनकी आसीसत न अघाती। साँझ, प्रात, दुपहर, निशीथ सब दिन अरु राती॥ क्यों न देहि आसीस, दुखी गन ईस मनावै ? क्यों न प्रसन्न प्रजा सब सुयश तिहारो गावै॥ जौ न दया करि आप दान दरियाव बहाती। कोटिन प्रजा हिन्द की अन्न बिना मर जाती। तासों नहिं यह अन्न दान धन दान तिहारो। है असंख्य जन प्रान दान को सुयश सुखारो॥ अति बिसाल यह धरम नहीं कोऊ जाके सम। याको फल तोहि ईस देइहै अवसि अनूपम ॥ पर उपकार बिचार प्रजा पालन हित केवल। नहिं भूलेहुं यामैं कहुं लखियत स्वारथ को छल॥ नहिं काहू की जाति, धरम लेबे को आसय। नहिं तेरो निज मत प्रचारिबे को या बिधि नय॥ नहिं तौ पेट चपेट परी परजा भारत की। किती न बनि कृस्तान दसा खोती आरत की।