. २८२ - पकी पकाई रोटी निज हाथनि दिखरावत। सहज पादरी लोग दुखिन के चित ललचावत ॥ कुलाचार, मर्याद, जाति, धर्महुँ प्रयास बिन। लै लेते उनके द्वै द्वै रोटी दै द्वै दिन॥ कहते सब सों 'हम कोटिन कृस्तान बनाये। प्रभु ईसू को मत भारत मैं भल फैलाये"॥ यूरप, अमेरिका वासी कब गुनते यह बल। समझत वे तो “यह इनके उपदेसहि को फल"॥ अन्न हीन, धन हीन, पसुन सों हीन, हीन गति। कृषिकारन की दीन दसा लखि करि करुना अति॥ तिनहिं फेरि कृषि काज चलावन हेतु विपुल धन। दियो लेन हित मोल बैल हल बीज आदिकन। बीज वपन, जल सिञ्चन के हितहू दीन्यो धन। या बिधि उजरे फेरि बसायो तुम कृषिकारन॥ दीनन दान रूप धन दीन्यो नहिं फेरन हित । लटे समर्थन कहँ दीन्यो ऋन रूप यथोचित । दियो जिमीदारनहिं न केवल कृषिकारन कहें। बाँध बँधावन, कूप खुदावन हित चाहत जहँ॥ नहिं औरनहीं दै सहायता आप चुपाई। निजहु असंख्य जलासय प्रजा हेतु बनवाई। नहर, अनेक, असंख्य सरीवर, कूप खुदाये। अनावृष्टि दुख रोकन हित बहु बाँध बँधाये॥ फिर इन उपकारन को वारापार कहाँ है। तेरो निर्मल यश जहँ लखियत भरो तहाँ है। क्यों न होय कृत कृत्यं प्रजा लखि यह प्रबन्ध सब। फेरि न यों अकाल व्यापन भय वे समझत अब॥ याहूँ सों अति भारी विपति महामारी की। जिन दच्छिन पच्छिम भारत में अति ख्वारी की।
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३११
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