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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३१२

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२८३ L- भरि॥ हरयो हजारन मनुज प्रान यह उत उतरत ही। हाहाकार मचाय दियो निज पायँ धरत ही। बस्यो बम्बई नगर उजारयो बिन, मानव करि। दियो केराँची अरु पूनाहूँ मै विपत्ति तिहि प्रदेस मै तौ फैल्यो याको डर भारी पै कॉपी भारत की सारी प्रजा तिहारी॥ ताहू के नासन मै आप ध्यान अति दीन्यो। करि करि बिबिध उपाय बढत बल ताको छीन्यो। प्रजा प्रान रच्छा हित व्यय करि आप अधिक धन। करि प्रबन्ध बहुँ भाँति दियो तेहि इत नहि आवन ।। देस देस से प्रबल डाक्टर लोग बुलाये। भॉति भाँति के नये नये औषध प्रगटाये॥ उचित औषधी औषधकारी लखि हरषानी। जीवन की निज आस प्रजा पुनि मन मै आनी।। होत देखि निर्मुल महामारी इन यतननि । लगी असीसन प्रजा तोहि साँचे सुख सो सनि ॥ या विधि प्रजा पालनी जब है वानि तिहारी। भारत प्रजा जाय नहि तब क्यो तुझ पर वारी।। लाख दुखी हूँ तेरे हरख न क्यो हरखावै। औरहु तेरी वृद्धि हेतु किन ईस मनावै ।। राजभक्ति की सहज बानि विधि नै जिहि दीनी। दुखहू लहि जिन नृप विरोधिता कबहुँ न कीनी॥ सो तेरे उपकार भार सो दबी अधिकतर। लखत न तो सम सुखद राज हू जो पुहुमी पर। तेरे हरष बीच तिनके हिय हरष कहानी। कहो कौन सो जाय भला किहि भाँति बखानी नहिं धन इनके पास जाहि व्यय करि प्रगटावै पै मन सो सब भॉति सबै आनन्द मनावै॥ 11