२८४ - कछुक धनी धन खरचत राजभक्ति दिखरावत। हीरक जुबिली को अस्मारक चिन्ह बनावत। लिखि अभिनन्दन पत्र प्रतिष्ठत जन पण्डत गन। पठवत सेवा मैं अति है प्रसन्न मन। प्रति नगरन की प्रजा बधाई तार पठावत। कवि गन कविता विरचि ताहि तुम पर प्रगटावत॥ कोउ साजत निज भवन कलस कदली तोरन सों। ध्वजा पताका चित्र लगाये चहुँ ओरन सों॥ नाच करावत कोऊ, इष्ट अरु मित्र जिमावत। कोऊ, अग्नि क्रीड़ा मिसि कोऊ निज हरष दिखावत ॥ पै यह कोड़ी कोटि तिहारी प्रजा बिचारी। दीन, हीन सब भाँति तुमैं दिखरावन बारी॥ नहिं राखत वह सामग्री मेरी महरानी। केवल निज हिय राजभक्ति पूरित लासानी॥ जामै लाखन धन्यवाद, आसीस करोरन राजत तेरे हित हे जननि ! हरष सँग थोर न॥ जो उन ऊपर कथितन सों नहिं कोऊ विधि कम। जो सम सत नृप काज उपायन और न उत्तम॥ लेहु ताहि फल ईस सदा याको तुहिँ दैहैं। दीनन की आसीस व्यर्थ कबहूँ नहि ढहैं। चारहु जुबिली कथित और भोगहु तुम अब सों। बिना विघ्न, बिन रोग, रहित सोगादिक सब सों। सपरिवार सुख सों राजहु जग राज दराजहिं । निज प्रजानि के हेतु और साजहु सुख साहिं ॥ आरत भारत दसा अहै जो बची बचाई। ताहि दूरि करि बेगि करहु आनन्द अधिकाई॥ यदपि तिहारे राज भयो भारत अति उन्नत। आगे सों अब सब कोऊ सब विधि सुख पावत ॥
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३१३
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