पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३१४

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• २८५ - 11 उदार मत। पै दुख अति भारी इक यह जो वढ़त दीनता। भारत मैं सम्पति की दिन दिन होत छीनता ॥ महँगी बढ़तहि जात, घटत है अन्न भाव नित। जातें कोऊ सुख सामग्री नहिँ सुहात चित । वढ़त प्रजा नित यहाँ, घटत पै उद्यम सारे। बिन उद्यम धन मिलै न, विन धन मनुज बेचारे सुख सुकाल हू जिन्हें अकालहि के सम भासत। कई कोटि जन सहत सदा भोजन की साँसत॥ एकहि समय आध ही पेट लहत जे भोजन। मोटो सूखो रूखो अन्न लोन बिन रोज न॥ तेरे राज करमचारी न्यायी साँची भारत दसा ससंकित है अस भाषत। बहु संकीरन हृदय जाहि हठकै झुठलावें। स्वारथ सों अन्ध बेसुरी तान लगावै॥ मनहुँ उभय दल मत सच झूठ तुमहिं समझावन। हित कराल दुष्काल को भयो अब के आवन ॥ जिहि तें प्रगट भयी तुम पर भारत की दुर्गति। लखि निज प्रजा दुखी त्यों भई दुखित चित सों अति॥ अब सोचौ जो भयो एकही बरस अबरसन। लगी भारती प्रजा अन्न दरसन कहँ तरसन॥ रही अन्न सों भरी पुरी जो भूमि सदाहीं। कैयो बरस अवरसन सों जो रीतत नाही। तामै अन्य दीप सों अन्न नहीं जौ आवत। तौ अबके भारत मनुजन कहँ कौन जियावत ॥ त्यों धन मोल लेन हित दीनन जौ नहिँ देतीं। दान, सहायक काज व्याज सुधि आप.न लेतीं॥ भूखन मरिकै प्रजा सेष बचती चौथाई। पूनी सी यह भारत भूमी परत लखाई॥