पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३२८

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२९९ लगाये। को बुरका सुभग सान्ति सौरभ सञ्चार सुहायो सुन्दर। मच्यो मञ्जु गुजार अनन्द मलिन्द मनोहर ।। पै दुर्भागी देस अवध अरु पच्छिम उत्तर। पच्छिम उत्तर ओर रह्यो जो भारत में पर। जो पूरब सों दूर दूर दच्छिन हूँ सो भल। उभय दिसा प्रतिकूल होय, प्रतिकूल लहत फल । दोउ सुभाव नियमानुसार तें बिलम लगावत। दच्छिन बात प्रभात प्रकास भानु इत आवत ॥ तासों इतै अजहुँ हे प्रभु! छायो दरसाई। प्रबल अविद्या तिमिर स्वत्व पथ ज्ञान दुराई ।। अन्याई चोरहु लखात निज घात उर्दू औढ़े निज गात छिपाये। पै तुम धन्य ! धन्य ! हे प्रजा प्रान तै प्यारे। अरुंन सरिस रवि न्याय दरस दिखरावन वारे॥ हरन अविद्या तिमिर कमल विद्या विकसावन । अहो धन्य ! गुजार आनन्द मलिन्द मचावन ॥ प्रादेसिक सासक बहु लाट लोग पूरब इत। आये, किये प्रबन्ध राज निज काज यथोचित पै साँचे राजा के प्रतिनिधि तुमहि लखाने । साँचे प्रजा बन्धु सासक तुमही गे माने भारत प्रभु जैसे महात्मा रिपन मनुज बर। सुभ अँगरेज राज प्रतिनिधि इक प्रजा मनोहर ।। दूजे तुमहीं प्रादेसिक प्रभु त्यों इत आये। जिन प्रजान सन्तप्त हृदय दै हर्ष जुड़ाये ।। बृटिश राज की महिमा तुमहिँ प्रगट इत कीनी। उदारता साँची सबहिन दिखाय दृग दीनी॥ नहिं अट्ठारह सौ सतानबे सन् ईसा मैं। तुम तजि और कोंऊ जौ सासक होतो यामै । Il 11