पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३३०

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- ३०१ - हेरि हेरि दुख हरत हमारे महि दुख निज तन। धरम परायनता न तजत अपनी पै पल छन। परम असिच्छित प्रजा पिखि पच्छिम उत्तर की। सिच्छा सुभग सुधार हेतु तेरी मति भरकी॥ आरम्भिक सिच्छा प्रचार मे बहु बल दीन्यो। सिच्छा उच्च सुधार तैसही न्यून न कीन्यो। कियो विश्व-विद्यालय को सशोधन सुन्दर। मेवर कालिज मै विज्ञानालय बनाय बर।। ये सब हमरे हित के हित कर्तव्य तुमारे। कबहू कैसेहू किमि हम पै जाहिं बिसारे? सौ सौ धन्यवाद जौ देहि तऊ कम लागत। पै तेरी हित करनि बानि हठ तनिक न त्यागत ॥ नित नव न्याय नीर बरसत घरे धन के सम। कौन कौन के हेतु देहिं अब धन्यवाद हम सब सो भारी कृपा तिहारी जो अति प्यारी। जाहि बिचारी बनत बाबरी बुद्धि बिचारी॥ तेरे सासन सुखद समय को जो बसन्त बनि। सचारत सुवास तव सुजग सुभग दिसि विदिसनि॥ दच्छिन दच्छिन बात बात मै रस बरसावत। बदल प्रजा दल तरु दुख दल मन सुमन खिलावत॥ जासु कारन बौराने। गावत कवि कोकिल कल कीरति गान रिझाने। सॉचहु जाकी रही आस कबहूँ कछु नाही। तिहि सुख की सामग्री लही सहज तुम पाही* ॥ 2 विद्वेषी सहकार

  • न्यायालयों मे नागरी वर्णावली स्वीकार विषयक अनुशासन पत्र ता०

१८ एप्रिल स० १९०० का।