पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३४५

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जदपि निरन्तर करत देश सेवा तुम आये।
निज भाषा हित साधन मैं तन मन धन लाये॥
जिहि कारन बहु मान लह्यो तुम यदपि यथारथ।
तऊ सुनिश्चय रूप भये हौ आज कृतारथ॥
आज आप को मान मानिबे जोग जगत के।
आज सुपूत भये हो तुम साँचे भारत के॥
माननीय पद चरितारथ अब भयो आज तै।
यथा कह्यो हरिचन्द किये उपकार काज तैं॥
"मान्य योग नहिँ होत कोऊ कोरो पद पाये।
मान्य योग नर ते जे केवल पर हित जाये॥"
विपुल कष्ट लहि जो सेवा तुम कीन देस हित।
ताहि भूलिहै को भारत सन्तान कदाचित?
को कृतज्ञता पास बद्ध तेरो नहिँ रैहै?
कोटिन धन्यवाद आसिख को तोहि न दैहै?
है प्रिय राधा कृष्ण दास! विश्वास न ऐसो।
रह्यो तिहारे साहस तै देख्यो हम जैसो॥
अहो स्याम सुन्दर सुन्दर बिधि करि कारज भल।
तुम अतिसय अलभ्य मङ्गलमय जो पायो फल॥
ताके हित बहु बड़े लोग अगिले ललचाये।
कीने जतन अनेक न पै पाये पछिताये॥
राजा सिव प्रसाद कहि २ स्रम करि २ हारे।
भारत ससि हरिचन्द जासु हित लरि २ हारे॥
कन्नूलाल तथा हनुमान प्रसादादिक जन।
दियो दुहाई टेरि लाभ पै लह्यो नाहि कन॥
रचि कासी प्रसाद हिन्दू समाज बकि थाके।
फुटकर सभा अनेक भईँ बिनईँ हित जाके॥
तोता राम रटत जाके हित रहे निरन्तर।
जीवन जा हित हरखि समर्प्यो गौरी संकर॥