पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३४६

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जाहित हिन्दी पत्रन के सब सम्पादक गन।
घिसत लेखनी रहे विराम न लहे एक छन॥
कहँ लौं नाम गिनावै देस विदेसिन करे।
जे बहु भाँतिन वार २ याके हित टेरे॥
को सज्जन जो याके हित कछु स्रम न उठायो?
दुर्भागिन सों तऊ नहीं कछु उन फल पायो!
बये बीज ऊसर मैं वै गरजनि कै आतुर।
जिहि कारन कोउ निरखि सके नहिँ ऊगत अंकुर॥
तुम सब अति उयबरा भूमि भागनि सों पाये।
बेगि मनोरथ सुमन परिस्रम करि बिकसाये॥
कै जो उचित परिश्रम करि राखे वै पूरब।
लहि तुमरो उद्योग वारि फल देत सहज अब॥
कै तुव फलद यज्ञ को कारन विबुध पुरोहित।
जाके बिन फल सिद्धि लह्यो किन कहौ कबै कित?
किधौ अग्रनी रह्यो अग्र जन्मा तुम सब को।
जा बिन अच्छर मग चलि पछितायो नहिँ कब को?
शर्म्मा वर्म्मा गुप्त किधौँ मिलि कीने कारज।
तुमहुँ लहयो फल, जथा लहे अबलौँ द्विज आरज॥
किधौँ देत उद्योग अवसि फल समय पाइ के।
लवत अन्न जो बोवत सींचत मन लगाइ कै॥
करत जाति जो जाति परिस्रम सत्य निरन्तर।
अवसि असम्भव हू कारज साधत विधि सुन्दर॥
लह्यो जु हम बहु दिन पीछे यह मनमानो फल।
निश्चय सो तुम सब के सत्य परिश्रम के बल॥
धन्य अहो तुम! धन्य सहायक सकल तुमारे!
धन्य सकल अनुचर! जिन कारज सुघर सँवारे॥
जासोँ हम मिलि देहिँ तुमैं "आनन्द बधाई!"
देखि कृतारथ तुमहिँ हरष अब उर न अमाई॥