पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३५६

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फुटकर


सुरँग बसन साजे सुमुखि, हौंसन चढ़ी अटान।
छनक छबी निखरी खरी, निरखत घिरी घटान॥६३॥
नेह नगर में पैठतहिं लागे दृग दल्लाल।
बिना मोल बिन तोल के, लूटि लियो मन माल॥६४॥
नेह नगर के हाट की, कहि न जाय कछु हाल।
बिना भाव बिन ताव के, बिकत सदा मन माल॥६५॥
सोभा सिन्धु अपार मैं अरी नैन की नाव।
परी प्रेम के भँवर अब और न लागत दांव॥६६॥
नेह जुआ की खेल मैं, ठेल धरयो मन दांव।
हटत न हारे हूँ गुनत, लाभ लोभ के चाव॥६७॥
दुरै न घूँघट मैं बदन, चन्द अमन्द लखाय।
दीपक लै फानूस के, जाहिर जीति जनाय॥६८॥
मेरे मन मोहन सरस, बंसी बहुरि बजाय।
जो निज गुन बस कय लियो, मो मन मीन फँसाय॥६९॥
जब सों मुरली तान तुव, आन परी है कान।
धुनि सुनि कैसी हूँ कहूँ, परत आन नहिं जान॥७०॥
स्याम सौंह स्यामा नहीं, भूलत तेरे बोल।
करत कान मैं प्रेमघन, मानहुँ काम कलोल॥७१॥
साखि मनायो मरु करि, त्यों प्रिय हाहा खाय।
चल्यो चित्त चलिबे तऊ, आगे परत न पाय॥७२॥
बिना फकीरी दिल भये, मजा अमीरी नाहिं।
यथा त्याग बिन लाभ नहिं, यह बिचार जिय माहिं॥७३॥
चारि बार दिन रैन मैं, भोजन चारि प्रकार।
कीजै लघु परिमान सों, नित घनप्रेम सुधार॥७४॥
क्रम सों उर पग पीठ पुनि, स्रवन बचाइय सीत।
सदा प्रेमघन सीख यह मन मैं राखौ मीत॥७५॥