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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३५७

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—३२९—

युगल जाम प्रति मध्य कछु कीजै अवसि अहार।
लघु लघु पीजै प्रेमघन बारि बारिहिं बार॥७६॥
यंत्र घड़ी इनजिनहुँ संग न्यून देह जनि जानि।
सब सुख मूल सरीर प्रिय सब सों अधिक सुजान॥७७॥
नाक नाभि तरवान सिर, नित प्रति तैल विधान।
कन्ध कुक्ष न तु कर नखन, कबहुँ प्रेमघन जान॥७८॥
डेढ पहर पैं अवसि कछु, भोजन सहज विधान।
तदुपरि आधे पहर पैं, उचित स्वल्प जलपान॥७९॥
लालटेन, छाता, छड़ी, कूँड़ी सोटा भंग।
धन अहार लै भवन सों चलिय सज्जन संग॥८०॥
जे समझैं ते आदरहिं जैसे सुधा सुजान।
आय सुमुखि बनितान त्यों सरस सुकवि कवितान॥८१॥
हरषित ह्वै मलवाइए, गालन लाल गुलाल।
रंग भले डलवाइए देय जो कोई डाल॥(अ)
सुनिए गाली दीजिए भर उछाह निःशंक।
या होली की हौस में यथा राव तिमि रंक॥ (ब)

नेत्र


करत काम निज नाम सम, प्यारी तेरे नैन।
कहैं सबै सुख अैन पर, हमैं भए दुख दैन॥४२॥
हित अनहित सत असत हूँ लहिये हाट की हाल।
बुध व्यापारिन सो कहत, मिलतहि दृग दल्लाल॥८३॥
चितै करत औचक चितै, ए सांचहु बेचैन।
चंचल चोखे चखन की, अजब तिहारी सैन॥८४॥
प्यासे ही तरपत रहे बने बिचारे दीन।
रूप सुधा की चाह मैं ये दोऊ दृग मीन॥८५॥
दृग दरजी गहि मन बचन ब्योंतत हट के हाट।
करत ब्योत जानत न कछु सीधी सूखी काट॥८६॥