पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३७

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छाई जिन पैं कुटिल कटीली बेलि अनेकन।
गोलह, गोली भेदि न जाहि २ बाहर सन॥८८॥
जाके बाहर अति चौड़ी गहिरी लहराती।
खंधक तीन ओर निर्मल जल भरी सुहाती॥८९॥
जा मैं तैरत अरु अन्हात सौ २ जन इक संग।
कूदत करत कलोल दिखाय अनेक नये ढंग॥९०॥
बने कोट की भाँति सुरक्षित जाके भीतर।
बैरिन सों लरि बचिबे जोग सुखद गृह दृढ़तर॥९१॥
कटीमार दीवारन मैं हित अस्त्र चलावन।
पुष्ट द्वार मजबूत कपाटन जड़े गजबरन॥९२॥
अंतःपुर अट्टालिकान की उच्य दरीचिन।
बैठि लखत ऋतु शोभा सुमुखि सदा चिलवन विन॥९३॥
औरन सों लखि जैबै को भय नहिं जिनके मन।
रहि नभ चुम्बित बंसवारिन की ओट जगत सन॥९४॥
शीतल बात न जात, शीत ऋतु जातें उत्कट।
लहि जाको आघांत गात मुरझात नरम झट॥९५॥
व्यंजन करत जो तिनहिं बसन्त मन्द मारुत लै।
निज सहवासी तरु प्रसून सौरभ पराग दै॥९६॥
ग्रीषम आतप तपन, छांह सन छाय बचावत।
खनधक जल कन् लै समीर सुभ लूह बनावत॥९७॥
वर्षा मैं बनि सघन सदाघन घेरन की छबि।
राखत रुचिर बनाय देखि नहिं परन देत रबि॥९८॥
निसि मैं जा जुरि जमात जीगन की दमकत।
जनु कज्जल गिरि मैं चहुंधा चिनगारी चमकत॥९९॥
परि परिखा तट मूल सेन दादुर की भारी।
करत घोर अन्दोर दाँव हित मनहुँ जुवारी॥१०॥


१. चिक।