पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३८

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झिल्लीगन को सारे रोर चातक चहुँ ओरन।
सुनि सखीन संग सबै नबेली झूलन झूलन॥१०१॥
गावत झूलन, सावन, कजरी, राग मलारहिं।
करहिं परस्पर चुहुल नवल चोंचले बघारहिं॥१०२॥
भौजाइन बैठाय, पेंग मारत देवर गन।
लाग डांट दुहुँ ओरन सों बढ़ि अधिक वेग सन॥१०३॥
पौढ़त झूला, पाट उलटि कै सरकि परत जब।
गिरत सबै तर ऊपर चोट खाय, कोऊ तब॥१०४॥
सिसकत गारी देत कोउन कोऊ, अरु बिहँसत।
कोउ, उपचार करत कछु कोउन कोऊ मनावत॥१०५॥
कोउ अपराध छमा निज, पग परि कर जोरैं।
कोउ झिझकार कोउन, बङ्क जुग भौंह मरोरै॥१०६॥
सुनि कोलाहल जब प्रधान गृह स्वामिन आवत।
भागत अपराधी तिन कहँ कोऊ ढूंढि न पावत॥१०७॥
यों वह बालकपन के क्रीड़ा कौतुक हम सब।
करत रहे जहँ सो थल हूँ नहिं चीन्ह परत अब॥१०८॥
नहिं रकबा को नाम, धाम गिरि ढूह गयो बनि।
पटि परिखा पटपर कै रही सोक उपजावनि॥१०९॥

द्वार

हाय यहै वह द्वार दिवस निसि भीर भरी जिति।
भाँति २ के मनुजन की नित रहति इकतृत॥११०॥
एक २ से गुनी, सूर, पंडित, विरक्त जन।
अतिथि सुहृद, सेवक समूह संग अमित प्रजागन॥१११॥
जहाँ मत्त मातंग नदत झूमत निसि बासर।
धूरि उड़ावत पवन, वही, विधि, वही धरा पर॥११२॥
जहँ चंचल तुरंग नरतत मन मुग्ध बनावत।
जमत, उड़त, ऍडत, उछरत पैंजनी बजावत॥११३॥